उन्हें समर्पित जिन्होंने अंतरजाल पर हिन्दी साहित्य के हजारों पन्नों को जोडा है
शुक्रवार, 29 जुलाई 2011
पत्थर ,पत्थर से टकरा गया, चिंगारी निकली ,
आज की पोस्ट में हम परिचित करा रहे हैं कविताकोष के नये योगदानकर्ता श्री विवेकानन्द डोबरियाल से।
साहित्य एवं खेलों में विशेष रुचि रखने वाले श्री डोबरियाल का जन्म उत्तराखण्ड राज्य के जनपद पौड़ी गढ़वाल के सुविख्यात सामरिक महत्व के स्थान लैन्सडाउन में 10 मार्च, 1962 श्री सुरेशानन्द जी के परिवार में तृतीय पुत्र के रूप में हुआ। आपकी प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा राजकीय इन्टर कॉलेज जयहरीखाल, लैन्सडाउन में हुयी।
स्नातक शिक्षा के लिये उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ आये एवं तत्समय के सुविख्यात लखनऊ क्रिश्चियन डिग्री कॉलेज से कॉमर्स विषय में डिग्री हासिल की।
राज्य सिविल सेवा स्तर पर क्रिकेट टीम के सदस्य रहे एवं बालीबाल तथा बैडमिंटन के अच्छे खिलाड़ी रहे। वर्ष 1979 में जब लखनऊ में दैनिक स्वतंत्र भारत अग्रणी समाचार-पत्रों में था उस समय से नियमित रूप से लेख, कहानियां एवं कविताएं उक्त समाचार-पत्र की साप्ताहिक पत्रिका में प्रकाशित होते रहे। वर्ष 1981 में ही यह राजकीय सेवा में आ गये एवं वर्तमान में राजस्व परिषद उत्तर प्रदेश, लखनऊ में राजपत्रित श्रेणी के अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। आप हाल ही में कविताकोश में सदस्य के रूप में जुड़े हैं। इनके अप्रकाशित कविता कोष में से 2 कविताएं निम्नवत् है:-
अहसास
पत्थर ,पत्थर से टकरा गया,
चिंगारी निकली , दोनो छिटक गये,
मजबूती का अहसास दिला गये,
जो टकरायेगा,चोट तो खायेगा,
तभी मैं ठोकर खा गया,
पत्थर मुस्कराया,
बोला इन्सान हो, संभलकर चलो,
भटको नहीं , एक डगर चलो ,
जब जब भटकोगे, मैं चोट मारूँगा,
तुम्हे तुम्हारे भटकने का
‘अहसास’ दिलाऊँगा।
‘‘ अस्तित्व’’
तेज ऑधियॉ चलीं,
डाल से अधसूखे पत्ते,
धड़ाम से जमीन पर आ गिरे,
कल जिन्हें अपनी ऊॅंचाई पर गर्व था,
आज धूल में मिल गये,
एक और ऑधी आयी,
पत्ते कभी इधर, कभी उधर,
थपेड़े खाने लगें,
कई के सीने पर जख्म हो गये,
कोई अधमरा तो कोई मरा-मरा,
कराहें निकली पर सुनी न गईं,
एक हवा का झोंका फिर आया,
दस-पॉच को कॅुए में ले गया,
दिल में तरावट आयी,
दूसरों पर देखकर हॅंसने लगे,
बोले देखो हम तो बच गये,
धीरे-धीरे हरे हो रहे हैं,
सूखा पत्ता थपेड़े खाते बोला,
अरे मूर्ख यह तेरा भ्रम है,
तू हरा नहीं सड़ रहा है,
तिल-तिल मर रहा है,
और तेरा अस्तित्व मिट रहा है।
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kavitao me gahra bhav nihit hai.
जवाब देंहटाएंlekhak ko badhai ho.
अस्तित्व को तलाशती रचना... अच्छी प्रस्तुती....
जवाब देंहटाएंashok ji bahut sunder kavitaon ko padhvaya astitv pr likhi sunder kavita
जवाब देंहटाएंrachana
sushama ji aur rachana ji
जवाब देंहटाएंthanks for your kind attention
shyam sundar ji
जवाब देंहटाएंisi tarah utsaah badhate rahiye
agli post me aur achchi rachanaye paayege.
both the poems are no doubt of very high standard. but somewhere in the poem - ahsaas- i feel like the stone and poet to be the simple insaan and in the second one - aastitva- i feel like the dry leaf while the poet as a green leaf filled with chlorophyl- destined to be dry someday.
जवाब देंहटाएंregards
anupam roy chowdhury
@Mr. Anupam : Sir you are right that poet is like green leaf but I think some people have forgotten the fact that it was the same chlorophyll filled in the leaves which used to give life(by making food for tree) to the tree and the tree always gets pride out of leaves that are green rather than which are dry.....
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