कविता
(कवियत्री ॠतु गोयल के ब्लॉग से साभार)
जो दुखों की बारिश में
छतरी बन तनते हैं
घर के दरवाज़े पर
नजरबट्टू बन टंगते हैं
समेट लेते हैं सबका अंधियारा भीतर
खुद आंगन में एक दीपक बन जलते हैं
ऐसे होते हैं पिता
बेशक़ पिता लोरी नहीं सुनाते
माँ की तरह आँसू नहीं बहाते
पर दिन भर की थकन के बावजूद
रात का पहरा बन जाते हैं
और जब निकलते हैं सुबह
तिनकों की खोज में
किसी के खिलौने
किसी की किताबें
किसी की मिठाई
किसी की दवाई
…परवाज़ पर होते हैं घर भर के सपने
पिता कब होते हैं ख़ुद के अपने?
जब सांझ ढले लौटते हैं घर
माँ की चूड़िया खनकती हैं
नन्हीं गुड़िया चहकती है
सबके सपने साकार होते हैं
पिता उस वक़्त अवतार होते हैं
जवान बेटियाँ बदनाम होने से डरती हैं
हर ग़लती पर आँखों की मार पड़ती हैं
दरअस्ल
भय, हया, संस्कार का बोलबाला हैं पिता
मुहल्ले भर की ज़ुबान का ताला हैं पिता
सच है
माँ संवेदना हैं पिता कथा
माँ आँसू हैं पिता व्यथा
माँ प्यार हैं पिता संस्कार
माँ दुलार हैं पिता व्यवहार
दरअसल पिता वो-वो हैं
जो-जो माँ नहीं हैं
माँ ज़मीं, तो पिता आसमान
ये बात कितनी सही है
पिता बच्चों की तुतलाती आवाज़ में भी
एक सुरक्षित भविष्य है
जिनके कंधों पे बच्चों का बचपन होता है
जिनके कंधों पे बच्चों का बचपन होता है
जिनकी जेब में खिलौनों का धन होता है
जिनकी बाजुओं से जुटती है ताक़त
जिनके पैसों से मिलती है हिम्मत
जिनकी परंपराओं से वंश चलता है
पिता बिन बच्चों को कहाँ नाम मिलता है
पिता वो हिमालय है
जो घर की सुरक्षा के लिए
सिर उठा, सीना तान के तना होता है
पिता बिन घर कितना अनमना होता है
पिता हो तो घर स्वर्ग होता है
पिता न हों
तो उनकी स्मृतियाँ भी अपना फ़र्ज निभाती हैं
पिता की तो तस्वीर से भी दुआएँ आती हैं!
जो घर की सुरक्षा के लिए
सिर उठा, सीना तान के तना होता है
पिता बिन घर कितना अनमना होता है
पिता हो तो घर स्वर्ग होता है
पिता न हों
तो उनकी स्मृतियाँ भी अपना फ़र्ज निभाती हैं
पिता की तो तस्वीर से भी दुआएँ आती हैं!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें