उन्हें समर्पित जिन्होंने अंतरजाल पर हिन्दी साहित्य के हजारों पन्नों को जोडा है
शुक्रवार, 29 जुलाई 2011
पत्थर ,पत्थर से टकरा गया, चिंगारी निकली ,
आज की पोस्ट में हम परिचित करा रहे हैं कविताकोष के नये योगदानकर्ता श्री विवेकानन्द डोबरियाल से।
साहित्य एवं खेलों में विशेष रुचि रखने वाले श्री डोबरियाल का जन्म उत्तराखण्ड राज्य के जनपद पौड़ी गढ़वाल के सुविख्यात सामरिक महत्व के स्थान लैन्सडाउन में 10 मार्च, 1962 श्री सुरेशानन्द जी के परिवार में तृतीय पुत्र के रूप में हुआ। आपकी प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा राजकीय इन्टर कॉलेज जयहरीखाल, लैन्सडाउन में हुयी।
स्नातक शिक्षा के लिये उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ आये एवं तत्समय के सुविख्यात लखनऊ क्रिश्चियन डिग्री कॉलेज से कॉमर्स विषय में डिग्री हासिल की।
गुरुवार, 21 जुलाई 2011
दुनिया से मिले अनुभवों को गज़लों का हिस्सा बनाती कवियत्री श्रद्धा जैन
आज हम परिचित करा रहे हैं कविताकोश के ऐसे सशक्त योगदानकर्ता से जिसने अब तक कविताकोश में 2850 छोटे बड़े योगदान दिये हैं । इस सदस्य की रचनाएँ कविता कोश में संकलित हैं। जिसकी रचनाओं को 2011 का कविताकोश पुरस्कार भी मिला है ।
उनका नाम है श्रद्धा जैन जो विदिशा मध्यप्रदेश में 8 नवंबर 1977 को पैदा हुयी और शैशिक रूप् से रसायन विज्ञान मे स्नात्तकोत्तर करने के बाद संप्रति सिंगापुर में हिंदी अध्यापिका हैं ।
अपनी रचना धर्मितो के लिये इनका कहना है कि:-
उनका नाम है श्रद्धा जैन जो विदिशा मध्यप्रदेश में 8 नवंबर 1977 को पैदा हुयी और शैशिक रूप् से रसायन विज्ञान मे स्नात्तकोत्तर करने के बाद संप्रति सिंगापुर में हिंदी अध्यापिका हैं ।
अपनी रचना धर्मितो के लिये इनका कहना है कि:-
शनिवार, 9 जुलाई 2011
चंदौली, उत्तर प्रदेश के रचनाकार हिमांशु पाण्डेय की रचना
रचना क्या है?..
"रचना क्या है, इसे समझने बैठ गया मतवाला मन
कैसे रच देता है कोई, रचना का उर्जस्वित तन ।
लगा सोचने क्या यह रचना, किसी हृदय की वाणी है,
अथवा प्रेम-तत्व से निकली जन-जन की कल्याणी है,
क्या रचना आक्रोश मात्र के अतल रोष का प्रतिफल है
या फिर किसी हारते मन की दृढ़ आशा का सम्बल है ।
’किसी हृदय की वाणी है’रचना, तो उसका स्वागत है
’जन-जन की कल्याणी है’ रचना, तो उसका स्वागत है
रचना को मैं रोष शब्द का विषय बनाना नहीं चाहता
’दृढ़ आशा का सम्बल है’ रचना तो उसका स्वागत है ।
’झुकी पेशियाँ, डूबा चेहरा’ ये रचना का विषय नहीं है
’मानवता पर छाया कुहरा’ ये रचना का विषय नहीं है
विषय बनाना हो तो लाओ हृदय सूर्य की भाव रश्मियाँ
’दिन पर अंधेरे का पहरा’ ये रचना का विषय नहीं है ।
रचना की एक देंह रचो जब कर दो अपना भाव समर्पण
उसके हेतु समर्पित कर दो, ज्ञान और अनुभव का कण-कण
तब जो रचना देंह बनेगी, वह पवित्र सुन्दर होगी
पावनता बरसायेगी रचना प्रतिपल क्षण-क्षण, प्रतिक्षण ।
"रचना क्या है, इसे समझने बैठ गया मतवाला मन
कैसे रच देता है कोई, रचना का उर्जस्वित तन ।
लगा सोचने क्या यह रचना, किसी हृदय की वाणी है,
अथवा प्रेम-तत्व से निकली जन-जन की कल्याणी है,
क्या रचना आक्रोश मात्र के अतल रोष का प्रतिफल है
या फिर किसी हारते मन की दृढ़ आशा का सम्बल है ।
’किसी हृदय की वाणी है’रचना, तो उसका स्वागत है
’जन-जन की कल्याणी है’ रचना, तो उसका स्वागत है
रचना को मैं रोष शब्द का विषय बनाना नहीं चाहता
’दृढ़ आशा का सम्बल है’ रचना तो उसका स्वागत है ।
’झुकी पेशियाँ, डूबा चेहरा’ ये रचना का विषय नहीं है
’मानवता पर छाया कुहरा’ ये रचना का विषय नहीं है
विषय बनाना हो तो लाओ हृदय सूर्य की भाव रश्मियाँ
’दिन पर अंधेरे का पहरा’ ये रचना का विषय नहीं है ।
रचना की एक देंह रचो जब कर दो अपना भाव समर्पण
उसके हेतु समर्पित कर दो, ज्ञान और अनुभव का कण-कण
तब जो रचना देंह बनेगी, वह पवित्र सुन्दर होगी
पावनता बरसायेगी रचना प्रतिपल क्षण-क्षण, प्रतिक्षण ।
गुरुवार, 7 जुलाई 2011
कविताकोश योगदानकर्ता मंच के सदस्य धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’ कविता
ग़ज़ल
मुहब्बत जो गंगा लहर हो गई
मुहब्बत जो गंगा-लहर हो गई
वो काशी की जैसे सहर हो गई
लगा वक्त इतना तुम्हें राह में
दवा आते आते जहर हो गई
लुटी एक चंचल नदी बाँध से
तो वो सीधी सादी नहर हो गई
चला सारा दिन दूसरों के लिए
जरा सा रुका दोपहर हो गई
समंदर के दिल ने सहा जलजला
तटों पर सुनामी कहर हो गई
जमीं एक अल्हड़ चली गाँव से
शहर ने छुआ तो शहर हो गई
तुझे देख जल भुन गई यूँ ग़ज़ल
हिले हर्फ़ सब, बेबहर हो गई
मुहब्बत जो गंगा लहर हो गई
मुहब्बत जो गंगा-लहर हो गई
वो काशी की जैसे सहर हो गई
लगा वक्त इतना तुम्हें राह में
दवा आते आते जहर हो गई
लुटी एक चंचल नदी बाँध से
तो वो सीधी सादी नहर हो गई
चला सारा दिन दूसरों के लिए
जरा सा रुका दोपहर हो गई
समंदर के दिल ने सहा जलजला
तटों पर सुनामी कहर हो गई
जमीं एक अल्हड़ चली गाँव से
शहर ने छुआ तो शहर हो गई
तुझे देख जल भुन गई यूँ ग़ज़ल
हिले हर्फ़ सब, बेबहर हो गई
सोमवार, 4 जुलाई 2011
पहली कविता
कोष के सर्वशेस्ट योगदानकर्ता श्री अनिल जनविजय जी की कविता
कविता नहीं है यह (कविता)
कविता नहीं है यह
बढ़ती हुई समझ है
एक वर्ग के लोगों में
दूसरे वर्ग के खिलाफ़
कविता नहीं है यह
आँखों में गुनगुना समन्दर है
निरन्तर फैलता हुआ चुपचाप
खौल जाने की तैयारी में
कविता नहीं है यह
बन्द पपड़ाए होंठों की भाषा है
लहराती-झिलमिलाती हुई गतिमान
बाहर आने की तैयारी में
कविता नहीं है यह
चेहरे पर उगती हुई धूप है
तनी हुई धूप
बढ़ती ही जा रही है अन्तहीन
कविता नहीं है यह
छिली हुई चमड़ी की फुसफुसाहट है
कंकरीली धरती पर घिसटते हुए
तेज़ शोर में बदलती हुई
कविता नहीं है यह
पसीना चुआंते शरीर हैं
कुदाल और हल लिए
ज़मीन गोड़ने की तैयारी में
कविता नहीं है यह
मज़दूर के हाथों में हथौड़ा है
भरी हुई बन्दूक का घोड़ा है
कविता नहीं है यह
कविता संग्रह: कविता नहीं है यह से साभार
कविता नहीं है यह (कविता)
कविता नहीं है यह
बढ़ती हुई समझ है
एक वर्ग के लोगों में
दूसरे वर्ग के खिलाफ़
कविता नहीं है यह
आँखों में गुनगुना समन्दर है
निरन्तर फैलता हुआ चुपचाप
खौल जाने की तैयारी में
कविता नहीं है यह
बन्द पपड़ाए होंठों की भाषा है
लहराती-झिलमिलाती हुई गतिमान
बाहर आने की तैयारी में
कविता नहीं है यह
चेहरे पर उगती हुई धूप है
तनी हुई धूप
बढ़ती ही जा रही है अन्तहीन
कविता नहीं है यह
छिली हुई चमड़ी की फुसफुसाहट है
कंकरीली धरती पर घिसटते हुए
तेज़ शोर में बदलती हुई
कविता नहीं है यह
पसीना चुआंते शरीर हैं
कुदाल और हल लिए
ज़मीन गोड़ने की तैयारी में
कविता नहीं है यह
मज़दूर के हाथों में हथौड़ा है
भरी हुई बन्दूक का घोड़ा है
कविता नहीं है यह
कविता संग्रह: कविता नहीं है यह से साभार
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